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Showing posts from December, 2023

एक बूंद तू पिला दे (84)

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स्नेह के धागे बाँधे हैं शब्द पिरोकर आँके हैं प्यार भरे रिश्तों के बूटे वक़्त के ऊपर टाँके हैं बज़्म में आइये मुस्कुरा लीजिए आप मिलकर ज़रा नाच गा लीजिए  क्या पता कल मिले वक़्त या ना मिले तालियाँ आज खुलकर बजा लीजिए बात इतनी सी उनको सताने लगी  मैं क्यों लोगों की नजरों में आने लगी  खेल शतरंज का वो लगे खेलने मात देकर बुलंदी को पाने लगी नई इक नीव रखनी है ज़माने को जगाना है। सुनो फलदार वृक्षों को, जतन कर अब बचाना है।। कभी मा-बाप को अपने ख़ुदा से कम समझना मत। तुम्हें उनसे दुआओं का मिला ये आशियाना  है।। हूँ मगन मदहोश हूँ, नाज़ मुझको आज पर। फ़क्र है नूर-ए-खुदा, वक्त के सरताज़ पर।। शून्य से वाबस्ता हूँ, इश्क के इस दौर में । रक़्स रूह करती मेरी, धड़कनों के साज पर।। जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं। मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।। बता दो तुम, ज़माने को, नहीं बाकी कोई हसरत। मिली हूं जब भी खुद से मैं, हुई तब-तब बेगानी हूं।। पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे सुलझाना है दुष्कर। समझ कर भी, करोगे क्या, मैं दरिया की रवानी हूं।। खुदा की हर खुदाई को , अजी हंसकर के अपनाया।। थप...

पहेली हूं, मैं उलझी सी (83)

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मैं वीरों का मान लिखती हूं  शहीदों का सम्मान लिखती हूं लिखती हूं मां भारती की हुंकार और देश का उत्थान लिखती हूं..। दीवानों की टोलियाँ आज़ादी को चली बचाने दीवानों की टोलियाँ वीरों की माता ने कर दीं अपनी खाली झोलियाँ फौलादी तन देकर जिनको तिलक लहू से कर भेजा  देखो यारो खेल रहे वो खून से बैठे होलियाँ मैं वो कली हूं  जो कभी मुरझाती नहीं केवल रब के अलावा कहीं सर झुकाती नही भिड़ जाती हूं दुनियां के खर पतवारों से बे वजह किसी सिर पर बिठाती नहीं पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं। मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।। पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे सुलझाना है दुष्कर। समझ कर भी, करोगे क्या, मैं दरिया की रवानी हूं।। गजल जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं। मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।। बता दो तुम, ज़माने को, नहीं बाकी कोई हसरत। मिली हूं जब भी खुद से मैं, हुई तब-तब बेगानी हूं।। पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे सुलझाना है दुष्कर। समझ कर भी, करोगे क्या, मैं दरिया की रवानी हूं।। खुदा की हर खुदाई को , अजी हंसकर ...

मिलन की आस ...! (82)

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मुक्तक प्यार की ख़ातिर चले आओ जहाँ भी हो, हमारे प्यार की ख़ातिर। तड़पती रूह रह-रह कर, तुम्हारे प्यार की ख़ातिर।। तुम्हें भेजा है उस रब ने, तकाज़ा वक़्त का समझों। लिए बैठे हैं हाथों में नज़ारे प्यार की ख़ातिर।। मिलन की आस लाईं हैं बरसता नूर चहरे पर, चुभन इक खास लाईं हैं तेरे अहसास की बूँदें, नया अहसास लाई हैं। मुहब्बत को लिए दिल में, चले आये तेरे दर पर। ज़रा देखो भरी महफ़िल , मिलन की आस लाईं हैं।। बोलतीं आँखें मुहब्बत हो या रुसवाई, सभी रँग घोलतीं आँखें। नज़ारों को नज़र में भर, नशे से डोलतीं आँखें।। बड़ी चंचल सयानी हैं , बना लेतीं हैं दीवाना। छुपालो लाख हाल -ए -दिल,अजी सब बोलतीं आँखें।। तुझे तुझसे चुराने को खड़ी हूं तेरे सम्मुख मैं, तुझे तुझसे चुराने को।। चली आई हूं महफिल में, तुझे अपना बनाने को। जिगर को थाम कर बैठो, संभल जाओ मेरे दिलवर। बिछी कदमों तले तेरे, सुमन बन कर लुभाने को।। फिर शुरू होगी मिलेंगे जब कभी हम तुम , रवानी फिर शुरू होगी। सुनो माही मुहब्बत की, कहानी फिर शुरू होगी।। उडूँ आज़ाद पंछी सी, मगन हो चूमती अम्बर। गुज़रते पहर में यारा, जवानी फिर शुरू होगी।। मुझे अपना बनाओ ना भला नाराज़ क...

स्वर्णिम भारत के निर्माण में योगदान (81)

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मैं बाबा की वो मीठी बच्ची हूं... वो कली हूं....  जो कभी मुरझाती नहीं...! सिर्फ बाबा के अलावा....  कहीं और सर झुकाती नहीं...! भिड़ जाती हूं... दुनिया के खरपतवारों से....! बेवजह.... किसी को सर पर बिठाती नहीं...!! जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं। मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।। खुदा है इश्क़ 'माही' का , चढ़ा सिर पर करे नर्तन। गढा़ है  जिसको बाबा ने, गजल मैं वो रूहानी हूं।। पांच तत्व से है बना, मेरा सुंदर रूप । मैं तो हूं एक आत्मा, बिंदी ज्योति स्वरूप।। नाम मेरा है शिव पिया , दिया प्रभु ने आन। कुछ प्रतिभा माही कहे, कुछ अब तक अनजान।। स्वर्णिम भारत के निर्माण में  , मैं अपनी आहुति देते हुए मैं कहना चाहती हूं बज़्म में आए हो प्यार कर लो ज़रा। थाम कर हाथ में हाथ नच लो ज़रा।। कल इजाजत समय की मिले ना मिले। ठोक कर तालिया  आज हँस लो ज़रा ।। परिवर्तन की आई बेला बच्चों पास बुला लो तुम  आया हूं मैं आज धरा पर थोड़ा समय निकालो तुम आज समय है संगम युग का , सतयुग में ले जाएगा....