पहेली हूं, मैं उलझी सी (83)
मैं वीरों का मान लिखती हूं
शहीदों का सम्मान लिखती हूं
लिखती हूं मां भारती की हुंकार
और देश का उत्थान लिखती हूं..।
दीवानों की टोलियाँ
आज़ादी को चली बचाने दीवानों की टोलियाँ
वीरों की माता ने कर दीं अपनी खाली झोलियाँ
फौलादी तन देकर जिनको तिलक लहू से कर भेजा
देखो यारो खेल रहे वो खून से बैठे होलियाँ
मैं वो कली हूं जो कभी मुरझाती नहीं
केवल रब के अलावा कहीं सर झुकाती नही
भिड़ जाती हूं दुनियां के खर पतवारों से
बे वजह किसी सिर पर बिठाती नहीं
पहेली हूं, मैं उलझी सी,
जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं।
मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।।
पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे सुलझाना है दुष्कर।
समझ कर भी, करोगे क्या, मैं दरिया की रवानी हूं।।
गजल
जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं।
मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।।
बता दो तुम, ज़माने को, नहीं बाकी कोई हसरत।
मिली हूं जब भी खुद से मैं, हुई तब-तब बेगानी हूं।।
पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे सुलझाना है दुष्कर।
समझ कर भी, करोगे क्या, मैं दरिया की रवानी हूं।।
खुदा की हर खुदाई को , अजी हंसकर के अपनाया।।
थपेड़ों की कसक सह कर, हुई चंदन सुहानी हूं।।
खुदा है इश्क़ 'माही' का , चढ़ा सिर पर करे नर्तन।
गढा़ है जिसको कुदरत ने, गजल मैं वो रूहानी हूं
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