एक बूंद तू पिला दे (84)
स्नेह के धागे बाँधे हैं
शब्द पिरोकर आँके हैं
प्यार भरे रिश्तों के बूटे
वक़्त के ऊपर टाँके हैं
बज़्म में आइये मुस्कुरा लीजिए
आप मिलकर ज़रा नाच गा लीजिए
क्या पता कल मिले वक़्त या ना मिले
तालियाँ आज खुलकर बजा लीजिए
बात इतनी सी उनको सताने लगी
मैं क्यों लोगों की नजरों में आने लगी
खेल शतरंज का वो लगे खेलने
मात देकर बुलंदी को पाने लगी
नई इक नीव रखनी है ज़माने को जगाना है।
सुनो फलदार वृक्षों को, जतन कर अब बचाना है।।
कभी मा-बाप को अपने ख़ुदा से कम समझना मत।
तुम्हें उनसे दुआओं का मिला ये आशियाना है।।
हूँ मगन मदहोश हूँ, नाज़ मुझको आज पर।
फ़क्र है नूर-ए-खुदा, वक्त के सरताज़ पर।।
शून्य से वाबस्ता हूँ, इश्क के इस दौर में ।
रक़्स रूह करती मेरी, धड़कनों के साज पर।।
जिसे कोई न पढ़ पाया, मैं ऐसी इक कहानी हूं।
मुहब्बत है, मुझे खुद से, मैं खुद की ही दिवानी हूं।।
बता दो तुम, ज़माने को, नहीं बाकी कोई हसरत।
मिली हूं जब भी खुद से मैं, हुई तब-तब बेगानी हूं।।
पहेली हूं, मैं उलझी सी, जिसे सुलझाना है दुष्कर।
समझ कर भी, करोगे क्या, मैं दरिया की रवानी हूं।।
खुदा की हर खुदाई को , अजी हंसकर के अपनाया।।
थपेड़ों की कसक सह कर, हुई चंदन सुहानी हूं।।
खुदा है इश्क़ 'माही' का , चढ़ा सिर पर करे नर्तन।
गढा़ है जिसको कुदरत ने, गजल मैं वो रूहानी हूं
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