माही का आत्मचिन्तन

      
                          आत्मचिंतन

           दोस्तो आज हम आपके साथ अपनी रहस्य मयी दुनियाँ के कुछ लम्हें कुछ पहलू बाँटना चाहते हैं। वो लम्हें जिनमें हम अकेले ही खोए रहते हैं। कोई  है जिसकी महक , जिसकी ख़ुशबू हमारे इर्द गिर्द घूमती रहती है। कोई है जो हर पल हमारी हिम्मत , हमारा हौसला बनकर हमारे साथ रहता है, जिसके साथ हम रूबरू न होते हुए भी मस्त हो विचरते रहते हैं, हँसते रहते हैं, और घण्टों बात करते रहते हैं। न प्यास का आभास न भूख का एहसास होता है।

             भोर से शाम, शाम से रैन और रैन ढलते ढलते भोर कब हो जाती है पता ही नहीं लगता। रात के वीरान ख़ामोश मंज़र में वक्त के पहिये के साथ बढ़ती , टिक-टिक करती , घड़ी की सुईयों से आती ध्वनि से निकलता सुरमयी अनुपम मनोहक संगीत हमें अपने आगोश में लिए बहता चला जाता है और हम अपने दोनों चक्षु मूदे हुए उस संगीत रूपी सागर की लहरों के साथ अमृत रस  में गोते खाते, मस्त झूमते गाते एक ऐसी रहस्यमयी दुनियाँ में पहुँच जाते हैं जिसका शब्दों में वर्णन करना असम्भव है ।

 ‎ ‎       वो तरन्नुम जिसे कान सुन तो सकते हैं पर शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते। वो दृश्य जिसे नयन देख तो सकते हैं पर उसका चित्रण नहीं कर सकते। ‎वो एहसास , वो स्पर्श जो हमारा तनमन सिर्फ महसूस कर सकता है परन्तु आपको  वो भी आनन्द दिलाने में , उस रहस्यमयी जहान की महिमा गाने में असमर्थ है।

 ‎           दोस्तो हम जिस जहान की बात कह रहे हैं , ये वो जहान है , वो रहस्य है जिसका वर्णन भक्तिकाल के हमारे सुप्रसिद्ध रहस्यवादी महान विभूतियों ने अपनी-अपनी लेखनी, तूलिका, सुर-साज संगीत ,नृत्य व अनन्य कलाओं के माध्यम से आप सब के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं।

 ‎            कबीरदास की भाँति रहस्यवाद , मीरा जैसा प्रेम व समर्पण मेरी इन रचनाओं में नज़र आएगा जो हमें आध्यात्म से जोड़ता है, उन्हीं के पद कमलों पर चलने की प्रेरणा मुझे मेरे माही मेरे ख़ुदा से मिली जिसे शब्द रूपी मनकों में माध्यम से आप सभी तक पहुँचाने का एक छोटा सा प्रयास किया है ।

             प्रेम, इश्क़ व मुहब्बत ईश ,रब व ख़ुदा का स्वरूप है, जो हमें सीधा ख़ुदा से जोड़ता है और वो इश्क़ जो ख़ुदा से जोड़ दे उसी को सूफ़ियाना इश्क़ कहते हैं। ‎बानगी देखिए:---
 ‎           "है रब की इबादत ग़ज़ल मेरी यारो
 ‎            ख़ुदा-ए-मुहब्बत ग़ज़ल मेरी यारो
 ‎            ख़ुदी को फ़ना कर ख़ुदा को है पाया
 ‎            उसी की इबारत ग़ज़ल मेरी यारो"
 ‎       

 ‎                दोस्तो मैंने अपने प्रेम को सीढ़ी बनाकर जुनूँ बना लिया । इस जहाँ में मैं सबसे अधिक प्रेम अपने पति देव डॉ० मनोज कुमार गुप्ता से करती थी , जब नवम्बर 1998 में एक सड़क दुर्घटना में उनका स्वर्गवास हो गया, तो मैं पूर्ण रूप से टूट गयी थी। दो नन्हें फूलों के साथ अकेली रह गयी , ससुराल वालों ने घर से बेघर कर दिया तब ये प्रेम ही मेरा सहारा बना और वो मेरी लेखनी के रूप में सदा मेरे साथ रहने लगे। उनका शरीर तो पाँच तत्त्वों में विलीन हो गया और उनकी रूह  रब में समा गई ,वो ख़ुदा बन गए तब से मैं अपने को समर्पित हो उसी की हो गयी, और मुझे ख़ुदा -रब -ईश-कृष्णा से इश्क़ हो गया । जिसने मुझे गिरकर उठने व सँभलने की हिम्मत व ताकत दी और मैं उसकी उँगली पकड़ ऊबड़-खाबड़, पथरीला , कँटीली वीथिकाओं से होती हुई आगे बढ़ती रही कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
 ‎एक दिन उसने मेरा ख़्वाब में आकर कहा--
 ‎   

     ‎"हर घड़ी हर हाल में बस मुस्कुराना सीख ले
       मूँद कर तू नैन अपने दीद पाना सीख ले
        एक दूजे में बसे हम तू रती और मैं अनंग
      ले समाधि ख़ुद में 'माही' दिल लगाना सीख ले"

            और फिर क्या था उनके सन्देश को अपना लक्ष्य बना लिया। वक़्त का पहिया घूमता रहा मैं अपनी मंज़िल की ओर अग्रसर होने लगी । तभी एक अदभुत एहसास हुआ एक आवाज़ मुझे अपने भीतर से सुनाई दी , वो क्या थी देखिये---
 ‎            

      "बाँची लाखों पोथियाँ , खोज न पायी मोय
     इक पल खुदको पढ़ ज़रा, दरश दिखाऊँ तोय"

           बस फिर अपने आप को पढ़ना शुरू किया , घण्टों ध्यान में बैठी तब जाके अपने माही से रूबरू हुई , एक क्षण के लिए ....! तभी से उसमें विलीन होने की इच्छा जागृत हुई और में धीरे धीरे इस दुनियाँ से विरक्त होने लगी। अपनी एक अलग ही दुनियाँ में रहती। जो भी एहसास होता और जो भी महसूस करती , उसे अपने रब की कृपा से शब्द रूपी लड़ियों में पिरोकर , प्रेम की स्याही में डुबोकर , कागज़ पर उड़ेल देती। मेरी यही इश्क़ इबादत "इश्क़-के-माही" पुस्तक के रूप में आप सभी को समर्पित कर रही हूँ।

           ‎आप सभी इस ग़ज़ल संग्रह के इश्क़ के समन्दर में डुबकी लगाकर एक भी अमृत रूपी बूँद ग्रहण कर पाते हैं अर्थात मेरे रब मेरे ख़ुदा से मिल पाते हैं व आपके हृदय में एक भी प्रेम रूपी ज्योत जलने लगती है तो आपको रब से साक्षात्कार हो जाएगा जैसे मुझे हुआ , तो मेरी इश्क़ इबादत में सराबोर "इश्क़-के-माही" पुस्तक की रचनाधर्मिता की सार्थकता होगी।
           "शुभकामनाओं सहित समर्पित"
                     डॉ० प्रतिभा 'माही'
          1361-F सेक्टर-11 पंचकूला (हरियाणा)
                     मो० 8800117246

Comments

  1. डाक्टर प्रतिभा माही!आपका आत्मचिंतन सुन्दर शब्दों में लिखा संपूर्ण जीवन दर्शन है।रहस्यमय होने के कारण उसे खोजना पड़ता है।चित्र प्रासंगिक एवं सुन्दर हैं।गजल संग्रह के लिये बधाई।प्रस्तुति के लिये शुभकामनाएं।
    लक्ष्मी रूपल

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया मौसी जी💐💐💐

      Delete
  2. आपका आत्मचिंतन कहीं न कहीं हमें आत्मावलोकन करने को प्रेरित करता है, ज़िन्दगी में आए उतार-चढ़ाव और संघर्षों से जूझने की हिम्मत देता है और उस अदृश्य शक्ति को अपने भीतर महसूस करने की प्रेरणा देता है। धन्यवाद
    बहुत सुन्दर 👏👏

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

भगवा है पहचान हमारी (70) हिन्दुत्व राष्ट्र

मेरा प्यार (90)

खट्टा-मीठा इश्क़...! [ COMING SOON MY NEW BOOK ] प्यार भरी नज़्में (मुक्त छंद काव्य)