कवि सम्मेलन(79)

बन्दिशों को तोड़कर, प्यार से मैं बोल कर।
शब्द के कुछ गुलगुले, चाशनी में घोल कर।।
आ गई हूं सामने, बात दिल की बोलने ।
ठोंकिये अब तालियाँ, हाथ अपने खोल कर।।

मुझको उनसे प्यार , है तो है
दिल-ए-गुलज़ार, है तो है
डूबी हूँ गर ख़्वाब में तेरे
पगलों में नाम शुमार, है तो है

कल यार उनसे... 
मुलाकात हो गई
सोची नहीँ थी वही बात हो गई...!!
सिलसिला शुरू हुआ....
पता ही नही चला....
कि कब दिन गुज़रा, कब शाम ढली....
और कब रात हो गई...!
सोची नहीँ थी वही बात हो गई...!!

गुफ्तगू करने लगे...
सभी सितारे.... 
और जुगनू भी निकल आए....
अपने मठों से बाहर...... 
झींगुर बजाने लगे बाजा ....
और टर्र - टर्र  टर्राने लगे  मेंढक.....
देखते - देखते ...
चाँदनी चाँद के आगोश में खो गई
सोची नहीँ थी वही बात हो गई...!!


चाँदनी चाँद मैं खो जाए तो अमावस आती है 
अगर छेड़े कोई कुदरत तो कयामत छाती है

दिल में उसको, कैद किया फिर,फैंकी सारी चाबियां
अनजाने में, नज़रें मेरी, कर बैठीं गुस्ताखियां
शोर मचाता इंजन जैसे, दौड़ रहा हो पटरी पर 
धक-धक धक-धक धड़के धड़कन ,  ऐसी हैं बेताबियां
*****

मुझे लगता है....
यहां कुछ लोग....
बहुत चोट खाए हुए हैं....!
तभी तो, 
नजरें नीचे झुकाये  हुए हैं....!

जब बैठी हो बीवी सामने.... 
तो डर लगता है जनाब....!
बेचारे....
खुलकर हंस नहीं पाते....
खुलकर तक नहीं पाते...
तभी तो रुमाल में....
अपना मुहूँ छुपाए हुए हैं...! 

क्या कहें...?
अपनों के सताये हुए हैं.....!
यहां कुछ लोग....
बहुत चोट खाए हुए हैं....!!!!!

जज साहब एक मुजरिम से कहते हैं ... तुमने 10 साल से अपनी बीवी को डरा  धमका के काबू में रखा है 

मुजरिम कहता है जी जज साहब बात यह है कि ..

जज साहब एक मुजरिम से कहते हैं ... सफाई मति तरीका बता तरीका


Gazal:
मैं उससे प्यार करता हूं वो अपनी चाल चलती है
सुनो आहें मैं भरता हूं वो अपनी जेब भर्ती है

बड़े ही प्यार से यारो, चुरा लेती सभी सुख चैन
खड़ी हो रोज छाती पर, मेरी वो मूंग दलती है।

कभी दो शब्द मैं कहता, अजी जब प्यार से उसको 
तभी बन जाती रणचंडी, आ मुझ पर टूट पड़ती है।

चला देती वो आ मुझ पर, कभी बेलन कभी करछी
रसोई में पकौड़े सा मुझे वो रोज तलती है।

सुनो कमसिन कली सी वो, नही है अप्सरा से कम।
बड़ी भोली है दिखने में, मगर नागिन सी डसती है।

अदालत में सुनो हक से सुनाता फैसला सबको।
मगर कब सामने उसके, मेरी ये दाल गलती है।

करूं तो मैं करूं क्या अब, नहीं कुछ भी समझ आता।
बतादो यार मुझे माही, क्यूं किस्मत रोज छलती है।
*****

पेट भींचे देख तो भूँखा पड़ा है आदमी।
आज के इस दौर में टुटा पड़ा है आदमी।।

वक्त के हालात ने तोड़ दी उसकी कमर ।
हर तरफ जख्मी हुआ फूटा पड़ा है आदमी।।

पोटली रिश्तो की बाँधे स्वार्थी वो हो गया ।
जानकर अनजान बन रूठा पड़ा है आदमी ।।

चंद पैसों के लिए ईमान अपना बेचता ।
प्रेम के हर भाव से सूखा पड़ा है आदमी ।।

इश्क का दावा करे कसमें उठाकर हाथ में ।
देख माही जोश में रूखा पड़ा है आदमी।।








मैं शिवा की गोद में रहकर पली
खिल गयी सुर साज़ सरगम की कली
थाम उंगली वो मेरी चलते रहा
छंद मुक्तक गीत ग़ज़लों में ढली


जिसका नहीं है कोई , उसका तो बस शिवा है 
संसार बस ये सारा, विश्वास पर शिवा है

तुम लाख चोरी कर लो, लाखों गिरा लो पर्दे 
क्या आईने में कोई, चेहरा कभी छुपा है 
जिसका नहीं है कोई , उसका तो बस शिवा है 


भीड़ में भी मैं अकेली ही रही 
जिंदगी क्यों कर पहेली ही रही 
वो तो ऊंचे महल से उठते रहे
मैं तो बस खंडहर हवेली ही रही

रिश्ते तो सब थे अपने, पर हो गए पराए। 
सच्चा तो बस वही है, जिसने हमें रचा है।।
जिसका नहीं है कोई , उसका तो बस शिवा है 



मैं हमेशा क्यूँ अकेला ही रहा
जिंदगी में बस झमेला ही रहा
इश्क और उम्मीद को छोड़ा नहीं 
रिश्तो में कड़वा करेला ही रहा


हम तो खुदा के बंदे, बस प्यार करना जानें। 
जिसने सिखाया जीना, उस पर ये दिल फ़िदा है ।।
जिसका नहीं है कोई , उसका तो बस शिवा है 

© डॉ. प्रतिभा माही



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