समीक्षा: पुस्तक 'इश्क़ इबादत' की डॉ० मनोज भारत द्वारा 【54】
समीक्षा: डॉ मनोज भारत (कवि एवं समालोचक) द्वारा।
पुस्तक: 'इश्क़ इबादत' (काव्य संग्रह )।
डॉ० प्रतिभा माही एक सार्थक और सक्रिय सृजनधर्मी हैं। विभिन्न साहित्यिक विधाओं में उनके कई संकलन प्रकाशित हो चुके हैं तथा कई संकलन प्रकाशनाधीन हैं। उनका पहला ग़ज़ल संग्रह 'इश्क़ मेरा सूफ़ियाना' साहित्य जगत की सुर्ख़ियों में रह चुका है। उनकी ग़ज़लों का जादू पाठकों के सर चढ़ कर बोला है। जब वे 'चंदामामा आओ ना' जैसा बाल साहित्य लिखती हैं, तो बच्चों की मनोदैहिक समस्त आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए बाल-मनोविज्ञान की समस्त धारणाओं की अनुपालना करती हैं। जब वे सूफ़ियाना रूहानियत में विचरण करते हुए 'इश्क़ मेरा सूफ़ियाना ' लिखती हैं तो उनका अंदाज़ एक गूढ़ दार्शनिक जैसा हो जाता है।
डॉ० प्रतिभा 'माही' प्रकाशन के साथ-साथ मंचीय आयोजनों में भी सक्रिय सहभागिता करती रही हैं। वे एक सफल कवयित्री, ग़ज़लगो, साक्षात्कारकर्ता, गीतकार, कुशल आयोजिका और पारंगत संगठनकर्ता हैं। इनका प्रस्तुत काव्य संग्रह भी उनकी काव्य कला के उत्कर्ष का परिचायक है। डॉ० प्रतिभा 'माही' का समस्त सृजन प्रेम की सृष्टि की सर्जना है। लेकिन उनका प्रेम कहीं भी भौतिक या दैहिक नहीं है। उनके प्रेम समस्त घटकों की यात्रा इश्क़-ए-हबीबी से इश्क़-ए-हक़ीक़ी तक है। वे इश्क़ को रब की रहमत घोषित करते हुए लिखती हैं कि ''इश्क़ ही सृष्टि का निर्माण और संहार करने वाला है। उदाहरणार्थ
इश्क़ हूँ....
इबादत हूँ....
मुहब्बत हूँ...
रहमत हूँ ख़ुदा की क़यामत हूँ...!
माही जी अपनी एक अन्य रचना 'इश्क क्या है..?' में इसे और भी अधिक सुस्पष्टता से परिभाषित करते हुए लिखती हैं-
इश्क़ बच्चों की शरारत है...
बुजुर्गों की हिफ़ाजत है...
दोस्तों की जान है...
अपनों का मान है....!
इश्क़ वह मन्ज़अनुगूंज स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित होती है। माही की रचनाओं में संयोग, श्रृंगार, वियोग की पीर, कोमल बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग पाठकों को आरंभ से अंत तक बांध कर रखने का सामर्थ्य रखता है। प्रेम के प्रीतिकर प्रतीकों के सौरभ के साथ-साथ यथार्थ बोध की पीड़ा के स्वर भी यत्र-तत्र आभासितर है...
जिसने...
उम्मीद का मन्ज़र सजा रक्खा है...!
ये न पूछो कि... इश्क क्या है..?
पूरे रचना संग्रह में रागात्मक भावों के परिपाक की होते हैं। जैसे-
बाढ़ कोई भी हो...
बाढ़ कैसी भी हो....
अपनी दुर्गंध और गंदगी....
बिखेर ही जाती है...!
यद्यपि डॉ० प्रतिभा 'माही' के रचना संसार पर सूफी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, तथापि केवल इसी के निकष पर कसकर उनका पूरा मूल्यांकन करना कदापि न्यायोचित नहीं है।वस्तुतः उनका रचना संसार विभिन्न तात्विक चिंतनों का सहज स्फूर्त सुमन है। वह साकार, निराकार, कृष्णमार्गी, राममार्गी, भक्तिमार्गी, ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी इत्यादि विविध वर्णों का सुसज्जित उपवन प्रतीत होता है। एक साकार कृष्णमार्गी उदाहरण प्रस्तुत है देखिए:-
मैं भी थोड़ा रंग लगा लूँ...
अंग से अपने अंग मिला लूँ....!
खेलो सजना ऐसी होली.....
राधा जैसे करे ठिठोली....!
इसी प्रकार द्वैतवाद, अद्वैतवाद विशिष्ट द्वैतवाद भी उनकी रचना संसार में शब्दायित होता है। इसका भी एक उदाहरण अवधेय है-
मैं ही तो तू है....
तू ही तो मैं हूँ...!
है मुझमें बसा तू...
मैं तुझमें बसा हूँ....!
और अन्यत्र विशिष्टाद्वैतवाद भी देखें 'बादशाह-ए-जन्नत' कविता में--
शुभागमन..
मेरे माही का...
लाया है...
इक अज़ब नज़ारा...!
माही जी का अध्यात्म नितांत दर्शन की बोझिलता को लादकर नहीं चलता बल्कि उसके प्रतीक नितांत पारलौकिक और अलौकिक न होकर, पाठक की दृष्टि और अनुभूति बोध के आस-पास के हैं। 'कहाँ हो तुम' का एक उदाहरण अवधेय है:-
वीरान अंधेरों की...
खामोशियां चुभोती हैं.....
प्यार से मखमली काँटे....!
रह जाती हूँ अकेली....
कहाँ हो तुम...?
वैयक्तिक प्रेम विरह की अनुभूतियों से सार्वजनीन आनंदप्रद अनुभूतियों की यात्रा, लौकिक प्रेम का पारलौकिक रूप में शब्दांकन, पाठक मन में आह्लाद का स्पंदन, उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखता है। उनकी भाषा उनके भावों की सहज संगिनी है। कहीं भी वे अपनी असाधारण प्रतिभा प्रदर्शन के लिए हिंदी, संस्कृत या उर्दू की क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग नहीं करती। उनकी शब्दावली गंगा यमुना की तहज़ीब का संगम है। उसके बीच में उर्दू हिंदी की विभाजक रेखा खींचना लगभग असंभव है। पाठक को समझने के लिए गहरे भाव तो मिलेंगे, लेकिन ऐसा कोई शब्द नहीं मिलेगा जिसके लिए आपको शब्दकोश की तलाश करनी पड़े। आजाद, रूहानी, फ़रिश्ते, आलम, आफ़ताब, नज़ारा, हमदम, शिकवा, शिकायत जैसे सामान्य उर्दू शब्दों के साथ प्रफुल्लित, विराट, स्वरूप, अनुभूति, श्रृंखला कुंदन, अनादि, अनंत जैसे समान्य बोलचाल के तत्सम शब्दों से भी उनकी रचनाएं अलंकृत हुई है।
आम बोलचाल के आंचलिक शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा के कुछ शब्द जैसे कैक्टस, कॉल, फोन, नंबर, डायल आदि भी कुछ रचनाओं में प्रयोग किए गए हैं। डॉ० प्रतिभा 'माही' के पूर्व संकलनों में ग़ज़ल आदि छंदों का प्रयोग पूर्ण शुद्धता के साथ हुआ है। इस कृति में अधिकांश रचनाएं मुक्त छंद की हैं, लेकिन भाव प्रवाह की दृष्टि से उन्हें छंद से मुक्त कभी नहीं कहा जा सकता। विषय, भाषा, शिल्प , बोध-स्तर की दृष्टि से कवयित्री सफल रही हैं। निश्चित ही काव्य जगत में इस कृति का स्वागत होगा और यह उन्हें यश और मान प्रदान करेगी। डॉ० प्रतिभा 'माही' की इस 'इश्क़ इबादत' कृति के माध्यम से हिंदी साहित्य भण्डार को समृद्ध करने के लिए उनको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ और बधाइयाँ देता हूँ।
डॉ० मनोज भारत (कवि एवं समालोचक) महामंत्री
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, हरियाणा प्रान्त)
मो० 94674 80000
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