पुस्तक: इश्क़ नचाए गली-गली (सूफ़ी गीत संग्रह) समीक्षा (80)

पुस्तक  amazon पर उपलब्ध है , नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से आप प्राप्त कर सकते हैं
इश्क नचाये गली गली (Ishq Nachaye Gali Gali) https://amzn.eu/d/cg4QhYD
पुस्तक:  इश्क़ नचाए गली-गली (सूफ़ी गीत संग्रह)
रचनाकार:  डॉ० प्रतिभा 'माही' (पंचकूला) हरियाणा।
संपर्क: मो० न० 8800117246
समीक्षा:  एम० एल० अरोड़ा ‘आज़ाद’ (लेखक/संपादक/अनुवादक/प्रकाशक) 8360773963 चंडीगढ़।
             इश्क़ रब से हो या रब के बनाए इंसानों से, जब हो जाए,  तो वाकई गली-गली में नचा ही देता है। डॉ प्रतिभा ‘माही’ जी की सूफियाना अंदाज में लिखी गई  पुस्तक ‘इश्क़ नचाए गली-गली’ जिसमें उन्होंने 76 गीत अपने माही/पिया/कृष्णा/ मोहना को समर्पित किए हैं। समर्पण देखते ही पुस्तक के प्रति रुचि जाग जाती है, कि एक ‘माही’ तो है प्रतिभा, सूफ़ी गीतों की रचयेता, तो यह दूसरा ‘माही’ कौन है…? 
             जैसे-जैसे हम गीतों को पढ़ते जाते हैं, गुनगुनाते जाते हैं, हम ख़ुद भी उस ‘माही’ को समर्पित होते चले जाते हैं। पहली रचना किताब के नाम के साथ चलते हुए पाठकों को श्याम सलोने के प्यार में नचा देती है….!
“झूम रही है सारी दुनिया जाने कैसी हवा चली….
 ये इश्क़ नचाये गली गली…!”
                  इस पुस्तक  की अगली रचना ‘तेरा दर्द जुदाई का’ से ही ‘माही’ का अपने ‘माही’ के प्रति समर्पण शुरू हो जाता है, जब ‘माही’ कहती हैं कि …..
      ‘इस माटी के घट में, तेरी महक समायी है….!
       तेरी रहमत से भगवन, हर जन्नत पायी है…!‘ 
                    तो दूसरी तरफ़ ‘किस बैठा चितचोर’ गीत में ‘माही’ कहती हैं…..
      ‘मोतियन से भर मांग हमारी…..
      बांध प्रीत की डोर…. 
       कित बैठा चितचोर….!
                    यहाँ आपको बता दूँ कि अपनी बहुत सी रचनाओं में ‘माही’ ने कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है, जो मेरे हिसाब से ब्रजभाषा में प्रयोग होते रहे हैं। भाषा का यह स्वरूप हमें क़बीर, रसखान आदि की रचनाओं में देखने को मिलता है। चूंकि ‘माही’ की जन्मस्थली एटा (उत्तर प्रदेश) में है। तो मैं मान सकता हूँ, कि ब्रजभाषा का आपकी शैली में आना स्वभाविक ही है। एक बानगी और देखिए…..
        ‘तुम, मत छेड़ो उन, तारों को, जो ज़ख्म हरे कर जाते हैं….!
         मत, याद दिलाओ, वो लम्हे, जो आंख मेरी भर जाते हैं’…..!
              यह ‘माही’ द्वारा बहुत ही तन्हा पलों में लिखी रचना लगती है।

               एक और बानगी देखें…..
  ‘मैं तो कट्टी तेरी आज हो जाऊंगी…!
  न मैं बोलूंगी तुझसे न घर आऊंगी…!
             यह गीत भी ‘माही’ ने बहुत ही मधुर लिखा है, जो मुझे बहुत प्रिय लगा है और बार-बार जिसे गुनगुनाने को दिल करता है।इसी गीत की दो पंक्तियां और देखें:
  “ज़ख्म आकर जो तूने सिया न प्रभु…! 
हो फ़ना मैं तुझ में ही खो जाऊंगी…!

              मैं  ‘माही‘ की हर रचना में समर्पण का भाव देख रहा हूँ, सूफ़ियाना अंदाज में यही जरूरी था। इस तरह रचनाओं के समूचे प्रस्तुतिकरण में ‘माही‘ सफ़ल रहीं हैं। यह भाव आगे कुछ इस तरह से पढ़ने को मिलता है:
     ‘जब भी तन्हा पाया मुझको तू धरती पर आया…!
      लेकर रूप नया दुनिया में तूने साथ निभाया…!‘

            वहीं ‘तू ही पालनहार है’ गीत के माध्यम से ‘माही‘  कहती हैं कि…….
पी कर जाम रूहानी अब तो, झूम रही हूँ मस्ती में ...!
भूल गई हर मंज़र ग़म का, बैठ प्रेम की कश्ती में….!”

          वहीं फ़िर लिखतीं हैं :
 “नज़रें न फ़ेरो यूँ भगवान, बिन तेरे रह न पायेंगे….!इक राह दिखा दो जीवन में, जिस पर हम चलते जायेंगे.!”
               मुझे  ‘माही‘ के गीत ‘मैं तो छोटी सी मटकी’ की पंक्तियाँ बहुत ही मनभावन लगीं, आप भी देखें….
      “दुनिया के धधों ने, मुझे मैला कर डाला….!
      मैं तो कोरी गागर थी, विष मुझमें भर डाला…!”
             और ‘दिल में लगी लगन’ इस गीत में तो ‘माही‘ ने समर्पण की गहरी और सर्वोत्तम बात ही कह दी है…..
       “तम को करके दफन….. 
       आई तेरी शरण…..!
    ज्ञान के दीप हर रोज़ जलने लगे…!‘ 

            ‘हम बंदे नादान तेरे’ यह गीत सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रभु के नाम के महत्ता को दर्शाता है, ‘माही‘ कहती हैं…!
 ‘हम बंदे नादान तेरे हैं, पूजा पाठ न जानें हम….! 
 केवल तेरा नाम जपें बस, केवल तुमको माने हम…!‘
         ‘नैनो के अनमोल दिए दो’ रचना में ‘माही‘ ने अपने मन को खोल कर रख दिया है प्रभु के लिए।
द्वार जिया का खोल दिया अब…. 
जो कहना था बोल दिया अब….!‘ 

            और एक बड़े खूबसूरत अंदाज़ में अपने हृदय के उदगार बयां करता हुआ ‘माही‘ का यह गीत सीधे मेरे दिल में उतर गया, आप भी देखें…. 
“तुम रहते परदेस में प्रीतम. कैसे साथ निभाओगे ….!
 कसमे वादे प्यार वफ़ा के, क्या पूरे कर पाओगे…?‘

      अगले गीत में तो क्या कहने….?, 
“बिन मौसम बरसात मेरे घर आई है….!
प्रीतम की सौगात साथ में लाई है….! 
             इस गीत में  ‘माही‘ ने कुछ पंजाबी शब्दों का भी प्रयोग किया है जैसे…. ‘दिल विच मेरे अद्भुत ज्योति जलाई है’ । “इश्क़ नचाए गली-गली” वाली मस्ती भी इसमें साफ नजर आती है। 
 “मोर पपीहा राह निहारे, काहे ना बरखा आवै रे ….!
खेल रहे हैं आंख मिचौली, घघि-घिरि बदरा जावै रे…!
               ‘‘माही‘ की हर रचना के अंदर मस्ती और तान  छिपी हुई है जो बहुत से गीतों में उसकी पह्चान हो जाती है। और इस तान को स्वर दिया जा सकता है। 
              ‘मैं तो तेरा ज्योतिपुंज हूं’ जैसी कुछ रचनाएं तो शीर्षक से लेकर अंत तक समर्पण ही समर्पण लिये हैं। यह बताता है कि आपने उसके नाम की कितनी लगन से और कितनी मस्ती से आप ने इनको रचा होगा।
‘’पूछ रही है आत्मा मेरी.....
तेरा रूप बसा है उर में, जहां सदा तू रहता है....!
सन्मुख आकर अक्स सदा ही, ले बाहों में गहता है..!!

               पूरी पुस्तक में रचनाओं के साथ राधा- कृष्ण के चित्र दर्शाये गए हैं। अगर किसी रचना में कृष्ण / मोहन/ या सांवरे का नाम भी न हो तो भी यह कहा जा सकता है कि आपके मन में रह रहा माही कृष्णा ही है।
             ‘प्रभु हाथ में हाथ तुम्हारा हो’ सरल हृदय से सरल शब्दों में आपके ह्रदय की अवस्था समझाता है।
 ‘जब रुखसत की घड़ियाँ हो पूरी....
माही बस साथ तुम्हारा हो...!
जब मौत बुलाने आए मुझे...
रग-रग में  वास तुम्हारा हो....!!‘

               ‘रूहानी जाम’ में भी आपकी मस्ती अपने श्याम की मस्ती से कम नहीं जब आप कहती हैं कि ...
तेरे सजदे में सर यह झुका है,
मेरा माही मेरा बस खुदा है....।‘ 
और 
आज रगों में कूट-कूट कर’ में तो आपने कमाल कर दिया...!
‘बरस-बरस कर नैना अब, तो रास्ता अपना भूल गए....!
प्रीत मिलन की चुनकर घड़ियाँ, वर माला पहना दो ना...!!!।
             और ‘आज पिया मोहे खुद में समाय लै…’ भाई वाह, यह शायद शास्त्रीय अंदाज में लिखी आपकी कृति है। मेरी मनपसंद। और इसके बिल्कुल बाद ‘श्याम तेरे चरणों की’ एकदम तेज पापुलर अंदाज में आपकी रचना है। 
‘श्याम तेरे चरणों की, मैं तो दीवानी हूँ...! 
दुनिया के रसमों से, मैं तो बेगानी हूँ...!।‘

               कागज पर जब कलम चली है बस उसी का हर मन में ‘माही’ मन जोगी हो गया।‘ एक तो आप माही हैं, और एक आपका माही है। रचनाओं में आप भी नजर आती हैं और आपका माही भी नजर आता है। कुछ रचनाओं में आपकी शिव आराधना भी है। 
मैं प्रेम पुजारिन हूं तेरी’ इस रचना के क्या कहने...
जो कुछ भी था,जो कुछ भी है... 
सब कुछ यह माही तेरा है....।‘ 
मैं भी तेरी, तन मन तेरा....! 
बस याद दिलाने आई हूँ...!!!

           आपकी अधिकतर रचनाएँ मनभावन है और उनमें मनोविज्ञान भी है। जिससे हम मोहब्बत करते हैं, उससे उसी को मांग लेना सच्चे प्रेम की निशानी है।
‘और भला क्या मांगू रब से, जिसने अपना नाम दिया है...! 
रब से रब को मांग लिया है, दिल ने अद्भुत काम किया है...!।‘
          ‘उसकी रोज दिवाली है’  में आप ने लिखा है....
इश्क़ रुहानी और समर्पण, कुछ तो रंग दिखाएगा...!
अटल भरोसा है अब दिल को,खींच उसे वो लाएगा..!
           समर्पण के साथ उसकी कामना, संभावना, और उम्मीद यकीनन इन लाइनों में नजर आ रही हैं।

         ‘जाप करो हरी नाम’ में लिखा है
बहुत पढ़ लिए पत्र पोथी, 
अब ख़ुद को पढ़ डालो...!!
लोभ क्रोध मोह छोड़ो सब कुछ, 
रहमत उसकी पा लो...!!!

          ज़िंदगी के फ़लसफ़े में धीरे-धीरे आप गंतव्य की तरफ बढ़ रही हैं, जीवन का पहला और अंतिम संदेश आपने कह दिया ‘फरिश्ता हूँ मैं बाबा की’ लिख्कर। 
चली मैं अलविदा कहकर, सुनो अपने वतन माही...!!
फ़िजाएँ गा रहीं मंगल, उधर बजती है शहनाई...!!।‘

             जीवन के अंतिम क्षणों में इंसान को अगर इस तरह से अपने इष्ट की याद आ जाए तो क्या कहने। ऐसा लगता है इस गीत में आपने अपना ध्यान, ज्ञान, शब्द और एहसास सब कुछ लगा दिया है। इसे पढ़कर मेरे तो आंखों में आंसू आ गए। 
 अब बात करता हूँ ‘देख लो आवाज देकर’ की ....
‘इस जहां से उस जहां तक, संग तेरे जाएंगे...!! 
देख ले आवाज देकर, रुक नहीं हम पाएंगे...!!‘

              ‘ऐसा पहली बार हुआ है जीवन में’ इस कृति में जो मैं ढूंढ रहा था, वह मिल ही गया। भक्ति अपनी जगह है, जीवन की सच्चाई की पहचान अलग है। 
रूह का रब से तार जुड़ा है जीवन में...!!
ऐसा पहली बार हुआ है जीवन में ...!
एक दूजे में खो जाने का, मेरा उससे वादा है...!
साथी सुन लो युगों-युगों से, बहुत पुराना नाता है...!!!
               लगता है उसकी याद सोते जागते रूह में ही बस गई है।   ‘फागुन आयो फागुन आयो रे’ यह मस्ती भरा गीत ऐसा ही है, जैसे-- ‘इश्क़ नचाए गली गली’ इसमें भी कुछ यूपी/बिहार की स्थानीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग हैं। 

             ‘मगर जिंदगी का मजा आ रहा है’  यह गीत भी लाजबाब है... जो भी हो पढ़कर जिंदगी का मजा आ रहा है। 
‘कभी गम के साए, कभी हंस के जीना..!!
कभी प्यार करना और कभी अश्क पीना...!!
      
            ‘दाता तेरी याद में’ इस रचना की बानगी  देखें....
भूली सुध-बुध सभी न रही होश में..।‘
‘माही बैठी है माही के आगोश में....!! 
             बिल्कुल सही कहा आपने, ऐसी रचनाएं तभी लिखी जाती है जब सुध-बुध खो जाती है। किसी देखे अनदेखे माही की याद में आंसू छलक जाते है, कलम में शब्द कहां से आते हैं, पता ही नहीं चलता।
           इस पुस्तक को पढ़कर मैं यकीनन माही का फैन हो गया हूँ। हर कलमकार को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। गीत क्या है...? ,गीत की विधा क्या है...?, समर्पण क्या है...? सब समझ में आ जाएगा। बहुत-बहुत बधाई आपको डॉ० प्रतिभा माही जी।

            डॉ० प्रतिभा 'माही' (पंचकूला) हरियाणा 

Comments

Popular posts from this blog

भगवा है पहचान हमारी (70) हिन्दुत्व राष्ट्र

मेरा प्यार (90)

खट्टा-मीठा इश्क़...! [ COMING SOON MY NEW BOOK ] प्यार भरी नज़्में (मुक्त छंद काव्य)