कविता: विभाजन विभीषिका
मैं वीरों का मान लेती हूं
शहीदों का सम्मान लिखती हूं
लिखती हूं आप सबके दिलों की हुंकार
और देश का उत्थान लिखती हूं
दोहा
हुआ विभाजन देश का, मच गया हाहाकार।
गूंज रही थी हर तरफ़, बस अब चीख पुकार
दोहा
थी सरहद की सर ज़मी , लतपथ खूं से लाल।
लाखों परिजन देश के , गए काल के गाल।।
कविता: विभीषिका
आज का दिन था विभीषिका का, आज के दिन थे सब लाचार।
आज के दिन भागे थे फिरंगी, देश का करके बंटाधार।।
आग लगाई अंग्रेजों ने, अलग अलग फिर छांट दिया।
जाते जाते भारत मां को, दो हिस्सों में बांट दिया।।
धर्मों में फूट पड़ी ऐसी, छिड़ गई लड़ाई बढ़ चढ़कर ।।
जो आग लगाई गोरो ने , पनपी वो हिंसा बन बनकर।
काट रहे थे, इक दूजे को, तब नदी खून की बहती थी।
अपने बच्चों की पीड़ा को, तब भारत माता सहती थी।।
जो बिछड़ गए थे अपनों से, अपनों को जलते देखा था।
लाशों पर लाशें पटती थीं, लाशों को चलते देखा था।।
है शब्द नहीं दिल में कोई, उनकी पीड़ा का वर्णन हो।
बस दुआ यही करती माही, उन सब रूहों का तर्पण हो।।
© डॉ० प्रतिभा माही
कातिलों के शहर ढूंढ़ते हो अमन
राह वीरान हैं लुट रहे हैं चमन
कर्ज ममता का ऑ फ़र्ज़ राखी का ले
सरहदों पर खड़े लाल बांधे कफन
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