हुई हूँ मैं तेरी जब से ....【36】

ग़ज़ल

वो जिस भी रूप में आये, मुझे स्वीकार है अब तो
करूँ इनकार कैसे मैं , मेरा दिलदार है अब तो

उसी ने है गढ़ा मुझको, उसी ने आ सँवारा है
हवाले कर दिया खुदको, वही सरकार है अब तो

जिगर की खोलकर परतें, रमाई है वहाँ धूनी
छुपा बैठा है अन्तर में, मेरा हक़दार है अब तो

बरसता बन कभी बादल, कभी भँवरे सा मंडराता
करुँ श्रृंगार क्यूँ नकली, वही श्रृंगार है अब तो

जिधर जाती नज़र मेरी, उधर उसको ही पाती है
हुई हूँ मैं तेरी जब से , चमन गुलज़ार है अब तो

© डॉ० प्रतिभा 'माही'

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